रायपुर। Jallianwala Bagh : आज जलियांवाला बाग नरसंहार की 104वीं बरसी हैं। इस दिन ब्रिटिश हुमुमत ने क्रुरता की सारी हदे पार कर दी थी। इस दिनस्वतंत्रता सेनानियों, क्रांतिकारियों और मासूम भारतीयों के लहू की नदिया बहाई गई थी। यह एक ऐसी हृदयविदारक घटना थी जिसके बारे में सोचकर आज भी भारतीयों के खून खौल जाते हैं।
आज के दिन यानी 13 अप्रैल को शहादत के दिन के तौर पर याद किया जाता है। इतिहास में 13 अप्रैल 1919 जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ था। भारत में पनप रहे क्रांति को दमन करने के लिए अंग्रेजो ने तानाशाह रास्ता को आया। कुएं में भारतीयों की लाशें और बच्चों से लेकर बूढ़ों तक पर गोलियों की बरसात कर दी गई थी।
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जलियांवाला बाग़ में क्यों जुटे थे लोग?
1919 के 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग़ में लोग शांतिपूर्ण रूप से दो राष्ट्रवादी नेताओं, सत्य पाल और डॉ. सैफउद्दीन किचलू के गिरफ़्तारी के विरोध में एकत्र हुए थे। जिसके बारे में जानकार अंग्रेजों को लगा कि 1857 की तरह एक और क्रांति का जन्म होने वाला हैं। और फिर क्या था? एक आदेश से हमलावरों ने तब तक गोलियां बरसाई जब तक उनकी गोली समाप्त नहीं हो गई, इसके बाद ब्रिटिश सैनिकों ने वहां से चले गए। कुल 1,650 गोलियां चलाई गईं, और अधिकतम 500 लोग मारे गए थे।
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जनरल डायर ने जारी किया था आदेश
जनरल डायर ने अपनी सेना को चेतावनी के बिना प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने के आदेश जारी किए थे। बाद में उन्होंने अपने कार्यों की बचाव करते हुए कहा कि उन्होंने भारतीयों को सबक सिखाना चाहा था और अधिक सेना उपलब्ध होते तो वह और ज्यादा बल उपयोग करते। फायरिंग के समय वहां करीब 25,000 लोग मौजूद थे। कुछ लोग भागने की कोशिश करते थे जबकि कुछ लोग जलियांवाला बाग के परिसर में बने सुनसान कुएं में कूदना चुनते। सेना को आदेश दिए गए थे कि वे सबसे अधिक भीड़ वाली जगह से फायरिंग शुरू करें ताकि सबसे अधिक लोगों को हानि पहुंचे।